Wednesday 19 November 2014

वाह रे शुभचिंतकों!

भाई ये शुभचिंतक भी अजीब लोग होते हैं. ये लोग कहते हैं की हम हमेशा अपने बच्चों का भला ही चाहते हैं. लेकिन फिर भी अपने ही बच्चों के सपनों का गला दबा देते हैं. कोई मुझे ये बताये आखिर इसमें ये आदरणीय शुभचिंतक कोनसा भला ढूंड रहे थे? एक तो जो करना था वो करने भी न दिया ऊपर से भलाई और प्यार का कम्बल ओढ़ कर आराम से सो गए.
अब कोई इनसे ये पूछे की ये तो चैन की नींद सो गए पर जिस इंसान के साथ ये ज्याख्ती की है इन ज्ञानी शुभचिंतकों ने उस बेचारे की तो रातों की नींद ओर दिन का चैन ही उड़ गया ना. आजकल एक नया चलन चला है उसको लोग emotional blackmail कहते हैं. इस भारी शब्द के तहत इंसान को अपने परम पुज्य शुभचिंतकों की बात माननी पड़ती है क्यूंकि वो उनके बड़े हैं, उनसे बेंतिहान मोहोबत करते हैं ओर सबसे एहम बात उन्होंने ये ज़ालिम दुनिया हमसे ज्यादा देखि होती है. 
मैं ये बिलकुल भी नहीं कह रही हूँ की वो गलत हैं. मैं बस ये बताना चाह रही हूँ की जब तक गिरेंगे नहीं, लड्खादायेंगे नहीं तब तक चलना कैसे सीखेंगे? ये लोग हमे चलना सिखाने के बजाये हमे बैसाखी इस्तेमाल करना पहले सिखा रहे हैं जो की गलत है बिलकुल गलत है. 
जो सपने हम देखते हैं उन्हें पूरा करने मैं हमे ख़ुशी के साथ साथ सुकून भी मिलता है. पर जो सपने हमे ज़बरदस्ती हमारे शुभचिंतक दिखाते हैं उन्हें पूरा करते-करते तो हम ही आधे हो जाते हैं.
अब आप खुद ही सोचिये कोनसा विकल्प उचित है और कोनसा अनुचित है. मेरे अनुसार तो नतीजा साफ़ है. 
बाकी जैसी आपकी इच्छा!
जो भी करिये बस खुश और सुकून से रहिये!!! :)


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