Monday 24 November 2014

बेबसी!

अपने सपनों की चिता को अपने आप आग लगाने से ज्यादा दर्दनाक शायद ही कुछ और हो इस दुनिया मैं. मुझे हमेशा लगता था की रो लेने से मन हल्का हो जाता है और सारा दर्द बहार आकर ख़तम हो जाता है. लेकिन ऐसा हुआ ही नहीं. ये न जाने कैसी तकलीफ थी रोना ही नहीं आया, बस अजीब सी घुटन होती रही. एक अजीब सी बेचैनी सी हो रही थी, ऐसा लग रहा था की शायद ये दुनिया एक अभिशाप है. मुझे नहीं पता ऐसा कितने लोगो के साथ होता है, मुझे ये भी नहीं पता की लोग इससे कैसे बहार आते हैं, मुझे तो ये भी नहीं पता की बहार भी आते हैं या नहीं क्यूंकि मैं तो इस घुटन से अभी तक अपना पीछा नहीं छुड़ा पायी हूँ.
न जाने ये कैसी अजीब सी बेबसी है. ये एक ऐसी स्तिथि है जिसे शायद ही कोई शब्दों मैं बयां कर पाए.  कभी कभी तो ऐसा लगता है कि आंसू भी हस रहे हों, ऐसा प्रतीत होता है की अपनी खुद की आत्मा ही धिकार रही हो. अपनी ही आँखों मैं अपने ही अपनों के लिए अजीब सी नफरत दिखाई देने लगती है. पर एक बात तो मानननी ही पड़ेगी और वो ये है की इस हालत के जिमेदार कहीं न कहीं हमारे अपने ही होते हैं. मैं तो कई बार अपने आपको सहानुभूती देने के लिए ऐसा मान ही लेती हूँ, क्यूंकि मेरा मानना ये भी है की अपने आप से नफरत करने से लाख गुना बेहतर है अपनों से नफरत करना. लेकिन ये तरकीब भी कभी कभार ही काम आती है.
बड़े- बुजुर्गों ने कहा है "अपने आखिर अपने ही होते हैं" और चाहे मैं अपने आपको कुछ भी सम्झालूँ इस सचाई को कोई नहीं बदल सकता. हाँ! ये सच है उन्होंने मेरे ख्वाबों को एहमियत नहीं दी, काफी हद्द तक ये भी सच है की उन्होंने ने ही मेरे अन्दर के खिलखिलाते इंसान को मारा है, और तो और ये भी सच है की आज उन्हीं की और सिर्फ उन्हीं लोगों के कारण मुझे अपने आप घिन आती है.
अपना ध्यान इस दिशा से हटाने के लिए मैंने काफी कुछ किया, जैसे: लगभग सारी प्रतियोगिताओं मे हिस्सा लिया, घर से बाहर रहने के जायस कारण ढूंढे जैसे मुझे कम से कम समय बिताना पड़े उन चार दीवारी के भीतर. कई बार अपने आस पास की चीज़ों की आवाज़ इतनी ऊँची करी की अपने अन्दर की आवाज़ सुनाई ही न दे पर ये तरकीब भी कुछ समय बाद असफल हो गयी.
कभी कभी बस ऐसा लगता है की रो लेते तो शायद अच्छा होता.
बस एक ही आग्रह है आप सबसे की अपने ख्वाबों की कब्र मत खोदियेगा कभी जीते जी मर जायेंगे!


No comments:

Post a Comment