Thursday 11 December 2014

धर्म!

 दुनिया  के बुरे दिन तो तब से चले आ रहे हैं जब से एक भाई दूसरे भाई का क़त्ल  सिर्फ कुछ करोड़ रुपयों क लिए कर रहा है, लोग 5 साल की मासूम बच्चियों के बलात्कार कर रहे हैं, बुज़र्गों को कुत्तों से बदतर तरीके की ज़िन्दगी गुज़ारने पर विवश किया जा रहा है और न जाने क्या क्या होता चला आ  रहा है इस प्रगतिशील संसार मैं.  मुझे लगता था की ये बुराई  की चरम सीमा होगी लेकिन मैं गलत थी.
लोग तो अब धर्म के नाम पे भी युद्ध करते हैं. मंदिर मस्जिद बनाने के चक्कर मैं ही न जाने कितनी हज़ार जाने चली जाती हैं, न जाने कितने बच्चे अनाथ हो जाते हैं, न जाने कितने लोगों और परिवारों की खुशियों पर ग्रहण लग जाता है. वैसे तो मैं अपने आप को नास्तिक मानती हूँ लेकिन इतनी तो समझ मुझे भी है की अल्लाह ओर राम अलग नहीं हैं. माँ हो या अम्मी, पापा हो या अब्बा, दीदी हो या आपी, मौसी हो या खाला होता तो सब एक ही है.  हम गुलज़ार और  बच्चन दोनों की कवितायेँ पढ़ते हैं, रफ़ी साहब और किशोर दा के गाने सुनते हैं, और तो और हलवा हो या सिवयीं दोनों ही चाव से खाते हैं तो भला हिन्दू मुसलमान मैं फर्क क्यूँ करें?
ईद हो या दिवाली मकसद तो सिर्फ लोगों को जोड़ना ही होता है, प्रार्थना हो या दुआ की तो दोनो ही अपने और अपनों की भलाई के लिए जाती है, तो फिर आखिर क्या फर्क पड़ता है की मेरा नाम शर्मा हो या खान?
अर्थी उठे या कब्र खुदे, शोक मने या दुःख हो, अश्क बहे या आंसू, दर्द हो या पीड़ा क्या अब  इनमें भी कोई फरक होता है?
अरे भले लोगों! चाहे सुख की घडी हो या दुखों का बादल छा गया, मुसीबत और समस्या भी इतना भेद भाव नहीं करती जितना हम लोगों ने आपस मैं करना शुरू कर दिया है.
चाहे कोई भी धर्म हो पढ़ाती तो इंसानियत और मानवता का पाठ ही है.
प्यार और मोहोबत दोनों ही बाटने से बढती है दोस्तों! :D


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