Monday 15 December 2014

कला!

हर वो चीज़ जो दिल से निकले, हर वो चीज़ जिससे करे बिना हाथ तडपे, हर वो चीज़ जो सुकून दे होती है कला. खैर आजकल तो पैसे में हर चीज़ तोली जाती है आखिर हम एक प्रगतिशील दुनिया का जो हिस्सा हैं, लेकिन अगर कोई भला इंसान इन लोगों को ये समझा दे की कला को इनके पैसों की कभी ज़रुरत नहीं होती, कला को तो इन लोगों तक की ज़रुरत नहीं है, ये तो यही बेबस लोग है जो ज़माने की भागदौड़ से थक हारकर के कला की ओर खिचे चले आते हैं.
थक हार के जब वापस आते हैं घर तो किशोरे दा के गाने सुने की तलब लगती है ना? मन करता है लेकिन स्वीकार करना भी तो शान के खिलाफ है. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब कह कह कर हार गए " ज़माने की दौड़ मैं इतना न खो जाओ की आत्मा को सुकून देने वाले संगीत का भी ख्याल न हो" .
लोग इतने व्यस्त होगये हैं अब की नृत्य और नाच मे फरक तक भूल गए हैं. नृत्य वो होता है जिसमे ताल की मात्राओं और थाप की लय का ख्याल रखा जाता है, और नाच वो होता है जो बस शारीर को ख़ुशी से हिलाने पर किया जाता है. पते की बात इसमें ये है की ये दोनों चीज़ें एक हो कर भी कितनी अलग है, और इन दोनों की ही अपनी एहमियत है. और ये दोनों ही कला हैं.
मैं शायद अपने विचार कला के प्रति कभी भी शब्दों मे अभिव्यक्त ना कर पाऊं  क्यूंकि मेरे लिए 
कला इश्क है कला सांसों का वजूद है कला जीने का मकसद है!!!!!!


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