Thursday 1 September 2016

कुछ अलफ़ाज़, बस यूँ ही -12!

ना जाने मैं कब इतना टूट गयी
की अपनी सांसों से ही कुछ
रूठ सी गयी।
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अगर तुम्हारे साथ जीने की आदत पड़ सकती है, तो तुम्हारे बिना सांस लेने की आदत तो पड़ ही जाएगी।
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मैंने तो ना तुम्हें छोड़े था ना उम्मीद को, अब मुझे क्या पता था की तुम और उम्मीद दोनों ही दगाबाज़ निकलोगे।
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शायद हर आंधी तूफ़ान से लड़ने की ताकत और हिम्मत है मुझ में, बस ना जाने इन यादों के सैलाब को कयूँ झेल नहीं पाती।
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ये "खास" बड़ा ही
अजीब लफ्ज़ है
सब कुछ करने
के बाद भी
इस खास की कमी
हमेशा रह ही जाती है।
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कहानियाँ सुनाने वाले बहुत हैं,
कहानियाँ शुरू करने वाले भी बहुत हैं
बस,
कहानियों को अनजाम देने वालों की
ना जाने कैसै कमी सी रह गयी।
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दर्द की फ़ित्रत अजीब होती है, बिन बुलाए आता है और बिना बताये चला भी जाता है।
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अजीब दस्तूर है ज़माने का, टूटे हुए को तोड़ना चाहता है। क्या पता नहीं है इनको की टुकड़े की आज़माशि से कुछ ना मिल कर भी सब मिल जाता है।
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मुहोब्बत बेहद नाज़ुक अलफ़ाज़ है, और उससे भी ज्यादा नाज़ुक चीज़ है दिल। तोड़ना बहुत आसान है और वाप्स जोड़ना तो खैर नामुम्किन ही है। लेकिन, फ़िर भी हम सब तोड़ते और जोड़ते रहते हैं। बेवकूफ़ हैं ना हम सब?
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बहुत याद आती है तुम्हारी
जब अकेले होती हूँ तब
और जब अकेले नहीं भी
होती हूँ, तब भी
पर क्या फायेदा
उस याद का जो तुम्हे
वापस ला ही नहीं पाए
खैर, छोड़ो
मेरी यादें
मेरी परेशानियां
तुम्हारा क्या?



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