Thursday 1 June 2017

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँही - 17!

इतनी समझ कभी ना आये, की मोहब्बत और भरोसा करने से पहले आँख खोलनी पड़े.
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वक़्त आने पर अपनों का पता चले या ना चले, परायों का पता तो चल ही जाता है.
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तेरी हर ख़्वाहिश का ख़याल रखती हूँ
बस यूँही बेवजह
अपने हर ख़्वाब को भुला देती हूँ
बस यूँही बेवजह
तेरी हर मुस्कान की इबादत करती हूँ
बस यूँही बेवजह.

शायद इस बेवजह की
वजह से हूँ मैं आज
बस यूँही बेवजह.
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हालत का इल्म नहीं, और चले हैं हाल समझने.
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तो आज फिर, रात का अँधेरा और चाँद की रोशनी ही सुनेंगे मेरे किसे. वो जनाब बात कुछ यूँ है की लोग कहानियाँ पसंद करते हैं पर मेरे पास कहानी नहीं क़िस्से हैं. तो मैं इस अंधेरे में दुबकी हुई तन्हाई को ही सुना देती हूँ अपना किसा क्या पता ये तन्हाई ही इस क़िस्से में कोई कहानी ढूँढ़ ले.
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किसी ने कभी कहा नहीं था की सुकून आपके दर आएगा, अब आप ख़ुद ही ऐसे ख़्वाब देखें और ज़माने को दोष दें तो यह आपकी बेवक़ूफ़ी है.
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क्यूँकि ये प्यार सिर्फ़ मेरा है, और हमारा नहीं इसलिए इस प्यार का सारा दर्द मेरा और हर ख़ूबसूरत अहसास तुम्हारा. तुम्हारी ख़ुशी के लिए आज भी और हमेशा कुछ भी.
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ये ज़ख़्म भर जाएगा
इस ज़ख़्म का दर्द भी
हार मान जाएगा
पर इस ज़ख़्म का
एहसास एक दिन
किसी मंज़िल पर
पहुँचा कर ही मानेगा
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तुम हमारी दाद दो या ना दो, हमारी शिद्दत की दाद तो देनी ही पड़ेगी. आसान थोड़ी है तुम्हारे जवाब ना देने के बाद भी हर रोज़ उम्मीद करना की तुम्हें हो ना हो हमारी फ़िक्र ना सही परवा तो है.
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अब मुझे मरहम का नहीं, उस ज़ख़्म का इन्तज़ार है जिसका मरहम मेरे पास है.
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