Sunday 19 November 2017

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँही - 19!

उस सुकून की ज़ंजीर को
एक बार तो जकड़ लेने दो.
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अभिव्यक्ति का हर ख़तरा उठाना ही पड़ता है,
वरना अंदर के तूफ़ान का सैलाब सब राख कर देता है.
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अब तो तुमको भी पता है की तुम धड़कन नहीं, धड़कन होने का अहसास हो.
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जो पहले रोज़ हाल पूछा करते थे
आज वो हालात तक जानने की
ज़हमत नहीं उठाते.
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ना वक़्त थमेगा, ना ज़िंदगी.
हाँ, तुम चाहो तो कुछ देर,
रुक कर,
चैन से साँस ले सकते हो!
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जज़्बातों के शमशान में
एक आँसु की बूँद
अमृत से कम नहीं होती.
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वो दिन आएगा
एक दिन
जब बदलेगा यह जहाँ
गाएगा आसमान
नाचेगा हर इंसान
वक़्त थामेगा हर लम्हा
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आख़िर क्यूँ करते हो, इज़हार को इंकार;
क्या जानते नहीं छुपाते नहीं छुपता
डर और प्यार।
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मिज़ाज है ख़ूबसूरती का, आँखों को चैन और मन बेचैन करके चले जाना.
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दर्द से अगर रिहाई ना भी मिले तो पल दो पल का आराम ही सही.

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