Sunday 31 December 2017

कुछ अल्फ़ाज़ बस यूँही - 20!

जो दिल और जान आज़ादी पर क़ुर्बान है,
वो आज़ादी ना जाने किस पिंजरे पर फ़िदा है.
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जिस पर फ़िदा हों, उस पर क़ुर्बान होने का ग़म कभी नहीं होता.
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जब अल्फ़ाज़ों से हाल-ऐ-दिल ब्यां ना हो पाए,
तो अंदर चल रहे सैलाब को वक़्त,
और आखों को अभिव्यक्त करने का मौक़ा दे देना चाहिए.
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अगर अपने हिस्से का आसमान मिल भी जाए, तब भी क्या आसमान के हिस्से होते हुए देख पाओगे?
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जब दिल को दाँव पर रख कर, जान की बाज़ी खेली है, तो डर से रिशता तो तोड़ना ही पड़ेगा.
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जब ज़माना नफ़रत का पैग़ाम बाटने लगे,
तो हम जैसे नाचीजों पर इश्क़ का परचम लहराने की ज़िम्मेदारी आ ही जाती है.
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इश्क़, अश्क़ और इंतज़ार की वजह ढूँढने ना निकल, ना जाने कब वो मिल जाये और तू ख़ुद टूट जाए.
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ज़रा सी मोहब्बत की आदत क्या पड़ी,
यह दिल तो तन्हाई का पता ही भूल गया.
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भुलाते तो उन्हें हैं, जिन्हें याद किया हो,
उन्हें कैसे भुलाएँ जो यादों का वजूद हो.
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ख़्वाहिशों और अर्ज़ियों के बीच ही कहीं उलझ कर रह गया वो बेचारा सुकून.



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